poet shire

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Tuesday, December 17, 2013

संगिनी

     


                                            बलैइयाँ उतारतीं हैं
ये निशा अपने रंग से
जो घटा सावन की
छ्टा छ्ट रही है कुछ
पावस की हल्की फूलकारियों से
ये बूँदें बन गयी है
जो छलक पड़ी है कुछ पहले
जब जग सोना हो दो पल को .

कहीं ये शाम फिर से
शबनमी ना हो जाए
इन बयारों की मस्ती मे
मधम मधम
जो बह चली फिर
आँधियारे से कुछ पहले
संग संगिनी बनके

तन मन बहकाने को.

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