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Monday, October 1, 2012

वियोग के छंद। (१)


आंखें मूंदें धीमे धीमे बहती अश्रु की धारा,
कर रहा प्रतीक्षा तेरी, मन दर्शन का मारा।
शोक विह्वल निष्तेज पड़ा मन, हुआ वैराग को प्यारा,
साधु ने जग छोड़ा, वियोगी, वन विचारा,
कर अलाप करुणा के ,छंद लिखता बेचारा।

मोह पाश से रम कर, गुणगान करता बैठे निचे तरुवर,
अश्रु धारा झर-झर बह ,भर चला शोकाकुल सरवर।
निश्दिन वेदना में,तुझे पुकारे, हृदय हर छण,
मिलन छोभ से भर रहा पिपासु का तन मन।

फिर कर विलाप, वेदना से,लिखूं  मै छंद हर छण।
मिलिंद को को मिलिया रस, तो मधू मिठास को पाई।
रस का प्यासा भंवरा करता निशदिन विचरण निर्जन वन ,
लिए हुए प्रेम पुष्प की अभिलाषा, कर रहा अलाप मन उपवन।

किसी छण भंग करो तुम,इस  मिलन की जिज्ञासा,
कर वेदना, नित नित पुकारे,तेरे प्रेम का प्यासा।
मन चंचल निश्तेज पड़ा है,
सामने रुष्ट वर्तमान खड़ा है,
रुदन पुकार की दुख्मई कंठस्वर भरा है,
हर लो, शिव कर दो, मिलन से,
                           मुझ वियोगी की अभिलाषा।
             








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