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Thursday, October 11, 2012

खाकी और टोपी।

उज्जवल कंठ श्वेत पटधारी ।
पुलकित कंठ, आडम्बर भारी।

जिन जींद जिए वो परलोक गए,
सब हंस हंस मंविनोद किये।
जन न्याय का गन भोग किये,
सुविचार संग सम्भोग किये।

जाहिल नेता उन्मुक्त विहारी,
पापी करनी बड़ा विचारी ।

घर घर घुमे बन के भिखारी,
कहू चालत कहू रुकत सवारी।
साझे द्वीप पर हनन करे,
फिर सब नेतवा मौन धरे,
हरण विषय री करम तुम्हारी।

कहत कहत थक गए कबीरा,
लहू कप्यासा हुई गवा रणबीरा।

सोचत हमहू कुछ कर डाली,
तेज धार म्यान संभाली।
कही पुष्प सजाये दिए,
कहीं रक्त से शय्या सजाये दिए।

उत्तम करनी भेद न जाने,
जनतागन में फिरभी प्रेम विराजे?

दुइगला हुआ रे नेतवा मेरा,
भाषण देत बड़ा अलबेला।
करनी से तो लोक उजाड़े।
कर संवाद से सब पे भारी।

बिख उगले है बिछेद करे है,
जन जाती इससे सचेत है ?

कर्ण प्रिये से स्वर लगे,
रंग रंग में भेद किये।
फिर कुछ तो हर्षायो ,
कुछ को बड़ा रुलायो।

सोमसोपान स्वपन दुई ट
का का ,
ठग लियो रे सारा पैसवा।

श्वेत वर्ण सर टोपी रख कर,
खाकी धोती पहिन के तन पर।
करी सभा की देश सुधारी,
जय हो जनता
जे किरपन मनवा कभी न जानी।








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