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Thursday, February 10, 2011

आखिरी सिग्रेट


एक वीरान सड़क किनारे,
गली की आखिरी गुमटी से एक दुकान पहले,
आज फिर नौजवानों का सैलाब चला है,
"ऐ भाई एक चिन्ना और दो किंग्स देना"
आम सा वार्तालाप है ये हर शाम पांच बजे,
लेकिन आज फिर एक नया वर्तमान खड़ा है,
उसी वीरान सड़क पर एक नौजवान रोता है,
छल्ले के हर धुंए पे वो कहता है ,
क्या करूँ यार?
कब बुझेगी ये आखिरी सिग्रेट,
बढ़ गया लो अब चिन्ना का रेट,
क्या अब बुझेगी ये मेरी आखिरी सिग्रेट
फिर वही शाम लाती है यादें सुबह की,
और वो याद बन जाती है उसकी आख्रिरी सिग्रेट,
और ये सिग्रेट,तो जैसे,
हो ज्योति अमर जवान की,
जो बुझी नही है सालों  से,
जैसे मन की तपस,जवानी की आग हो,
जो बुझ नही सकती बुजुर्गों के  नेक ख्यालों से,

हौले हौले से बुझ रही है सांसे,
हर साँस की उस छोर पे खड़ी है,
एक आखिरी सिग्रेट,
अमर है इसकी प्यास,
जुडी है इससे हजारों काश!,
जज्बे की आग से भी,बुझाये नही बुझती,
ये आखिरी सिग्रेट.
जाने कब,कैसे बुझेगी,
ये मेरी जिंदगी की आखिरी सिग्रेट.

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